सूचना का अधिकार कानून
सर्वप्रथम मैं सभी पाठक बंधुओं का धन्यवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने इस आलेख को पढ़ने हेतु अपने अमूल्य समय में से कुछ समय दिया.
मैं बहुत परेशान था की आखिर यह सूचना का अधिकार कानून बनाने का मूल उद्देश्य क्या रहा होगा निश्चय ही पैसा वसूल करना तो नहीं रहा होगा परन्तु छत्तीसगढ़ एक पिछड़ा राज्य होने के बावजूद एक अपवाद स्वरुप है. इसका उदहारण तो मैंने स्वयं अपने एक आवेदन पर प्रशासन के रवैये को देखकर समझ लिया है और उन सभी लोगों से मेरी पूरी सहानुभूति है जिन्होंने भी सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत आवेदन दिया है. एक अल्प बुद्धि व्यक्ति भी समझ सकता है की जिस प्रकार से छत्तीसगढ़ सूचना का कानून का प्रारूप है वह महज़ शासन की तिजोरी भरने का एक जरिया बन सकता है न की आम आदमी की मूलभूत अधिकारों को सुदृढ़ करने का जरिया.
कृपया एक नज़र डालें छत्तीसगढ़ के सूचना के अधिकार कानून पर.
१. सर्व प्रथम १० रुपये आवेदन शुल्क के रूप में जन सूचना अधिकारी को देय.
यदि यह जानकारी किन्ही कारणों या जान बूझ कर नहीं दी जाती है तो जिसके ज़िम्मेदार अधिकारी पूर्णरुपेन हैं आपको अपीलीय अधिकारी के पास आवेदन लगाना होगा.
२. अपीलीय अधिकारी के समक्ष ५० रुपये शुल्क के साथ आवेदन प्रस्तुत करना होगा.
यदि इसके उपरांत भी आपको जानकारी नहीं दी जाती है तो आपको आयुक्त राज्य सूचना आयोग के पास एक आवेदन देना होगा.
३. आयुक्त के समक्ष १०० रूपये शुल्क के सातह आवेदन लगाना होगा.
अब एक नज़र राष्ट्रीय सूचना का अधिकार कानून पर.
१. सर्व प्रथम १० रुपये का आवेदन जन सूचना अधिकारी के संख.
२. सूचना न मिलने पर बिना किसी शुल्क के अपीलीय अधिकारी के पास आवेदन.
३. इसके पश्चात् भी सूचना न मिलने पर केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त के समक्ष आवेदन बिना किसी शुल्क के.
अब एक नज़र एक और पिछदे राज्य झारखण्ड पे नज़र डाल लेते हैं -
१. यहाँ भी सबसे पहले जनसूचना अधिकारी के समक्ष १० रुपये आवेदन शुल्क के साथ आवेदन जमा करना है.
२. अपीलीय अधिकारी के समक्ष कोई शुल्क नहीं.
३. आयुक्त के समक्ष कोई शुल्क नहीं.
अब पूरी परिस्धितियों का आंकलन करने से यही स्पष्ट होता है की या तो छत्तीसगढ़ की जनता अन्य कई पिछड़े राज्यों से काफी संपन्न है या तो शासन को सूचना का अधिकार कानून आय का एक स्रोत जैसा समझ में आता है और उसके पास अन्य आय के स्रोतों का आभाव है .
हममे से कितने लोग हैं जो ये नहीं समझते की वास्तविक गरीबी रेखा और शासकीय गरीबी रेखा में ज़मीं आसमान का अंतर है और कोई भी इस तथ्य से मूंह नहीं फेर सकता परन्तु क्या यह बात छत्तीसगढ़ की अतिसंवेदनशील एवं भावुक शासन को नहीं पता की छत्तीसगढ़ की जनता के यथार्थ में क्या स्थिति है . एक और तो शासन यह ढिंढोरा पीट रहा है की उसने जन सामान्य की भावनाओं के मंशानुरूप शासन व्यवस्थित किया है पर यह सत्य से कितना परे है यह किसी को बताने की आवशयकता नहीं है .
एक सवस्थ लोकतंत्र में आम जनता की पहुँच सूचना तक सरलता से होना एक रूप से उसकी सफलता सुनिश्चित करने में महान्तावापूर्ण भूमिका निभा सकता है और इसमें सूचना का अधिकार जैसे कानून की अपरिहार्यता निश्चय ही शासन के स्तर पर सुनिश्चित करने हेतु ही इसे कानून के रूप में स्थापित किया गया है . यह शासन और प्रशासन को और ज्यादा पारदर्शी बनाने में सहयोगी है परन्तु जिस प्रकार से छत्तीसगढ़ राज्य में शुल्क का निर्धारण किया गया है उससे इस कानून को उसके उद्देश्य पूरा करने में पूरी सफलता मिलेगी इसमें मुझे शंशय ही नहीं विशवास है की ऐसा होना एक दिवा स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं . एक ऐसा राज्य जहाँ अधिकांश आबादी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रहती है और अपनी विभिन्न समस्याओं से पीड़ित है ऐसे में जन सूचना का अधिकार जनता का संबल बनाने की जगह उनकी जेबों पर बोझ बन गया है .
मैं क्योंकि छत्तीसगढ़ का निवासी हूँ इस कारण मैंने जो भी विवेचना प्रस्तुत की वह छत्तीसगढ़ पर केन्द्रित है परन्तु यह उन सभी राज्यों के लिए भी है जिन्होंने सूचना के अधिकार को बेकार करने में कोई कसार नहीं छड़ी है.
मूल विषय यह नहीं की आप कितना शुल्क वसूल कर रहे है अपितु सोचनीय विषय यह है की आप उस गलती जो की एक लोकसेवक सूचना न देकर कर रहा है उसकी सजा उसे न देकर उसे दे रहे हैं जो स्वयं परेशान है. शासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए की क्या लोकसेवक अपने दायित्वों का सही प्रकार से पालन कर रहा है अर्थात क्या वह सूचना सही समय एवं मांगी गयी जानकारी दे रहा है यदि नहीं तो उसके विरुद्ध सख्त रवैया अपनाते उन्हें दण्डित करना न्यायसंगत होगा. आप ही सोचिये क्या ये एक दुकान से भी ख़राब नहीं लगता पहले एक सामन खरीदने जाओ अगर सही सामन न मिले या पैसा लेने के बाद भी सामान न मिले तो भी न मिलाने की शिकायत करने के लिए शुल्क फिरभी न मिले तो और शुल्क अजीब हालत हैं मैं तो कहता हूँ इससे अच्छा शासन को इसे सूचना का अधिकार प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना देना चाहिए कम से कम ये ढकोसला तो ख़त्म हो की यह आम जनता की भलाई के लिए है.
अधिकतर लोगों को या तो जानकारी प्रथम आवेदन पर दी ही नहीं जाती या दी जाती है तो गलत या अपूर्ण जानकारी, फिर सिलसिला शुरू होता है कार्यालय की दौड़ का शायद अंतहीन क्योंकी अधिकतर आवेदक परेशान होकर या तो अपील करते हैं या करते हैं तो कम से कम अपील के बाद दूसरी अपील करने की हिम्मत तो शायद ५-१० प्रतिशत लोग की कर पते हैं वह भी शायद अतिश्योतिपूर्ण लगता है.
मेरा अनुरोध है उन सभी नीतिनिर्माताओं से निवेदन है की इसमें संशोधन करें की जितना शुल्क लेना है एक बार ले पर बार बार ये कार्यालय कार्यालय की दौड़ ख़त्म करें और सुनिश्चित करें की जनता को जानकारी समय पर उपलब्ध हो सके.
मूल विषय यह नहीं की आप कितना शुल्क वसूल कर रहे है अपितु सोचनीय विषय यह है की आप उस गलती जो की एक लोकसेवक सूचना न देकर कर रहा है उसकी सजा उसे न देकर उसे दे रहे हैं जो स्वयं परेशान है. शासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए की क्या लोकसेवक अपने दायित्वों का सही प्रकार से पालन कर रहा है अर्थात क्या वह सूचना सही समय एवं मांगी गयी जानकारी दे रहा है यदि नहीं तो उसके विरुद्ध सख्त रवैया अपनाते उन्हें दण्डित करना न्यायसंगत होगा. आप ही सोचिये क्या ये एक दुकान से भी ख़राब नहीं लगता पहले एक सामन खरीदने जाओ अगर सही सामन न मिले या पैसा लेने के बाद भी सामान न मिले तो भी न मिलाने की शिकायत करने के लिए शुल्क फिरभी न मिले तो और शुल्क अजीब हालत हैं मैं तो कहता हूँ इससे अच्छा शासन को इसे सूचना का अधिकार प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना देना चाहिए कम से कम ये ढकोसला तो ख़त्म हो की यह आम जनता की भलाई के लिए है.
अधिकतर लोगों को या तो जानकारी प्रथम आवेदन पर दी ही नहीं जाती या दी जाती है तो गलत या अपूर्ण जानकारी, फिर सिलसिला शुरू होता है कार्यालय की दौड़ का शायद अंतहीन क्योंकी अधिकतर आवेदक परेशान होकर या तो अपील करते हैं या करते हैं तो कम से कम अपील के बाद दूसरी अपील करने की हिम्मत तो शायद ५-१० प्रतिशत लोग की कर पते हैं वह भी शायद अतिश्योतिपूर्ण लगता है.
मेरा अनुरोध है उन सभी नीतिनिर्माताओं से निवेदन है की इसमें संशोधन करें की जितना शुल्क लेना है एक बार ले पर बार बार ये कार्यालय कार्यालय की दौड़ ख़त्म करें और सुनिश्चित करें की जनता को जानकारी समय पर उपलब्ध हो सके.